मुसलमानों को अपनी सोच में बदलाव
लाना होगा।
मो. रफीक चौहान(एडवोकेट)
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत की
कुल का 15 फीसदी
से ज्यादा अबादी मुसलमान की हैं। आबादी के
हिसाब से
इंडोनेशिया के बाद सबसे ज्यादा मुसलमान
भारत में रहते हैं। इनमें शहरीकरण का
प्रतिशत भी सामान्य आबादी से ज्यादा है, लेकिन
अफसोस इस बात का है कि इनमें
साक्षरता की दर अन्य वर्गों की अपेक्षा बहुत कम है। देश की कुल मुस्लिम आबादी का तकरीबन 40
फीसदी हिस्सा अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में आता है।
सन्
2001 की जनगणना के अनुसार देश में मुसलिम
आबादी वाले राज्य में –
उत्तर प्रदेश, जहां
18.5% (30.7 मिलियन)
आबादी मुसलमानों की है, वहीं पश्चिम बंगाल में
मुसलमान (20.2 मिलियन)
25% और
बिहार में (13.7 मिलियन) 16.5% मुसलमान रहते हैं।
सबसे ज्यादा मुसलमानों की आबादी असम (31%),
पश्चिम बंगाल
(25%) और
दक्षिणी राज्य केरल में (24.7%) में
है। भारत में दो और
ऐसे राज्य
(लक्षद्वीप की 93% और
जम्मू और कश्मीर की 67%) मुसलिम
आबादी है। लेकिन, केरल
को अगर छोड़ दें, तो
सभी राज्यों में मुसलमानों
की शैक्षणिक स्थिति और आर्थिक स्थिति काफी चिन्ताजनक है।
अगर देश की राजधानी दिल्ली की
बात करें तो इसकी भी हालत ज्यादा अलग नहीं है। 11.7 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य दिल्ली
में 66.6 फीसदी
मुसलमान शिक्षित
हैं, जिनमें
59.1 % साक्षर
महिलाएं है। दिल्ली में रहने की वजह
मुसलमानों में साक्षरता की दर संतोषजनक जरूर है, लेकिन, रोजगार पाने के लिए ये भी नाकाफी है।
जिसका नतीजा है कि दिल्ली में सिर्फ 30.1% मुसलमानों
को ही
रोजगार मुहैया है। मतलब साफ है कि मुसलमानों में साक्षरता की दर बढ़ी जरूर है, लेकिन उनके पास ऐसी
शिक्षा नहीं है जो उन्हें रोजगार दिला सकें।
यूं तो शिक्षा किसी भी समुदाय के
विकास के लिए अहम है। लेकिन, दूर्भाग्यवश
आज मुसलमानों के पिछड़ेपन की असल वजह भी शिक्षा ही है। मुसलमानों के
शैक्षिक, सामाजिक
व आर्थिक हालात को सुधारने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों के
तमाम प्रयास भी मुसलमानों हालात सुधारने में अब तक ना काफ़ी साबित हुए हैं।
ऐसे हालात में हमें बड़ी संजीदगी
से मुसलमानों के हालात पर गौर करना होगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में ज्यादातर
मुसलमान ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी
है जो अपने बच्चों को मदरसों में ही पढ़ने भेज सकते हैं। ऐसे में अगर हम इन मदरसों की
पुरानी शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक नहीं बनाएँगे। तो तब तक ज्यादातर मुस्लिम बच्चों
को हम अच्छी शिक्षा नहीं दिला सकते।
गौरतलब है कि गांवों के 15 से 30 फीसदी मुसलमान के
बच्चे अपनी पहली पढ़ाई
मकतब से शुरू करते हैं, और
फिर आगे की पढ़ाई मदरसा में करते हैं।
सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी ये खुलासा कर चुकी है कि 4 फीसदी मुस्लिम बच्चे
आज भी फुलटाइम सिर्फ मदरसों में ही पढ़ते हैं।
ऐसे में जरूरत इस बात की है कि
इन मदरसों को अब हाईटेक बनाया जाए, ताकि
यहां से निकलने वाले बच्चे आधुनिक शिक्षा लेकर इतना परिपक्व हो जाएं कि वे इंजीनियर और
डाक्टर बन सकें। इसके लिए इन मदरसों को भी इंटरनेट, तकनीकी शिक्षा सुविधा प्रदान कर आधुनिक
बनाने की अत्यन्त जरूरत है।
ताकि ज्यादातर मुस्लिम
बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके और बाहरी दुनिया से बराबरी कर सकें।
लेकिन, इसका
नतीजा देखने के लिए हमें शायद लंबा इंतजार करना होगा।
अगर, हमें मौजूदा पीढ़ी
के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में सुधार की थोड़ी भी फिक्र है, तो सबसे पहले हमें
मुस्लिम समुदाय के लिए वक्फ की गई संपत्ति
के पूरे ब्यौरे को पारदर्शी बनाना होगा। वक्फ से जुड़ी सभी जानकारियों को
ऑनलाइन करना होता ताकि हर आदमी को वाक्फ की आमदनी और खर्च का हिसाब मिल सके। आज देश में
करीब 4 लाख
90 हजार
रजिस्टर्ड वक्फ बोर्ड हैं।
जिसके पास
6 लाख एकड़ की
अचल संपत्ति है।
जिसकी बाजार
में निर्धारित कीमत करीब 1 लाख
20 हजार करोड़
है। लेकिन
इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। अगर
इस संपत्ति का सही
तरीके से इस्तेमाल किया जाए। तो यकीनन वक्फ बोर्ड सलाना करीब 12 हजार करोड़ की कमाई
कर सकता है। और ये रकम मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए कम नहीं है।
इसके साथ साथ मुसलमानों को प्रजातन्त्र और देश की राजनीति को समझकर देश की राजनीति में सक्रिया भाग लेना होगा। जिसके लिए जरुरी है कि वो अपनी वोट की ताकत को समझे और अपने अन्दर लीडरशीप पैदा करें। ताकि वो अब तक की दरियां झाड़ने और कुर्सियां बिछाने की सभ्यता से बाहर आकर राजनीति सत्ता हासिल करें ।
-------------